दाढ़ी बढ़ाने और कतरवाने का शरई हुक्म

ज के दौर में ये मौज़ू (विषय) मुसलमानों के बीच बहस का एक बहुत बडा मौज़ू बन गया है ; कुछ लोगों ने उन लोगों पर कुफ्र और बग़ावत का भी इल्ज़ाम लगा दिया है जो दाढ़ी नहीं रखते और मूंछें नहीं कतरवाते, अलबत्ता अपने इस इल्ज़ाम की ताईद (पुष्टि) में ये लोग जो दलील पेश करते हैं वो इतनी क़वी (मज़बूत) नहीं जो इतने संगीन इल्ज़ामात के लिये मुनासिब हो।

ये मौज़ू माज़ी (भूतकाल) में कुछ मशहूर और काबिले एहतिराम औलमा और अइम्मा किराम के जे़रे बेहस रहा है, और इस पर मुख़्तलिफ़ (कई) मसलकों के बीच इख्तिलाफ़ात (मतभेद) भी हुए हैं। शरीयत में इस मौज़ू (विषय) को दीन की फ़रुआत (शाखाओं) में रखा गया है जिसमें इख्तिलाफ़ की गुंजाइश होती है, इसके बरख़िलाफ़ दीन के उसूल होते हैं जिनमें इख्तिलाफ़ क़ाबिले क़बूल नहीं होता।
इस मौज़ू पर इस्लाम के हुक्म पर बेहस में जाने से पहले हमें इसके कई पहलुओं पर ग़ौर कर लेना चाहिए इसी तरह काबिले एहतिराम औलमा और अइम्मा के मौक़िफ़ (मत) को समझ लेना चाहिए।
दाढ़ी आदमी के जिस्म का एक क़ुदरती पहलू है, इंसान इस्लाम से पहले ज़माना-ए-क़दीम (पुराने ज़माने) से उसे बढ़ाता आया है और ये अमल आज भी जारी है। ये इंसान के फ़ितरी तख़लीक़ (रचना) का हिस्सा है जो अल्लाह سبحانه وتعال ने उसे बख़्शी है। यहां फ़ितरत से मुराद सफ़ाई और नज़ाफ़त की वो अंदरूनी फ़ितरत है जो इंसान के ज़हनी और अख़लाक़ी पहलू की अक्कासी करती है। इस फ़ितरत के मुख़्तलिफ़ ख़साइल (आदतें) हैं जो हुज़ूर अक़्दस (صلى الله عليه وسلم) की इस हदीस में वाज़ेह (स्‍पष्‍ट) हो जाते हैं :
''फ़ित्रत के दस अफ़आल (कार्य) हैं : मूंछों को कतरवाना, दाढ़ी बढ़ाना, मिस्वाक, नाक में पानी डालकर साफ़ करना, नाखून तराशना, उंगलीयों के जोड़ों को धोना, बग़लों के बालों को तोड़ना, शर्मगाह के बालों को उतारना, अपनी शर्मगाहों को धोना और अपने मुँह की कुल्‍ली करना।'' (तर्जुमा माअनिए हदीसे नबवी)
अल्लामा शौकानी رحمت اللہ علیہअपनी तसनीफ़ नेलुल औतार में फ़रमाते हैं : ''इस हदीस में हुज़ूरे अकरम (صلى الله عليه وسلم) की फ़ितरत से मुराद ये है कि अगर इंसान उन ख़साइल पर अमल पैरा हो तो वो एक फ़ित्री आदमी माना जाएगा, ऐसी फ़ित्रत जो अल्लाह سبحانه وتعال ने इंसान को अता की हैं और उनके इत्तिबा की तरग़ीब दिलाई है ताकि इंसान इज़्ज़त व वक़ार के आला मर्तबों तक पहुँच हासिल कर ले।''
इस मौज़ू पर जहां तक इस्लाम के हुक्म की बात है, तो तीन आरा (राय) सामने आती हैं :
(1) इमाम इब्‍ने तैमीया (رحمت اللہ علیہ) और इमाम इब्‍ने हज़म (رحمت اللہ علیہ) के अक़्वाल के मुताबिक़ दाढ़ी रखना फ़र्ज़ और दाढ़ी मुंढवाना हराम है। उनके अलावा और भी औलमा ने यही राय दी है।
(2) इमाम अहमद इब्‍ने हंबल (رحمت اللہ علیہ), अल्लामा इब्‍ने क़दामह  (رحمت اللہ علیہ), इमाम शीराज़ी (رحمت اللہ علیہ)  , इमाम नोववी (رحمت اللہ علیہ), अल्लामा शौकानी (رحمت اللہ علیہ), क़ाज़ी अयाज़ (رحمت اللہ علیہ) वग़ैर की राय में दाढ़ी बढ़ाना मंदूब (सुन्‍नत) और उसे मुंढवाना मकरूह है।
(3) मुफ़स्सिरे क़ुरआन अल्लामा क़रतबी (رحمت اللہ علیہ) और क़ाज़ी अबूबक्र इब्‍ने अलअरबी (رحمت اللہ علیہ) की राय में दाढ़ी रखना या उसे साफ़ कर देना मुबाह है।
मुंदरजा बाला (उपरोक्त) में से पहली राय की ताईद (पुष्टि) में औलमा हुज़ूरे अकरम (صلى الله عليه وسلم) की इन अहादीस को पेश करते हैं कि आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया :
(1) अपनी मूंछें अच्छी तरह मूंढो और दाढ़ी बढ़ाओ, इस तरह आतिश परस्तों से जुदा रहो।

(2) मुश्‍रिकों से जुदा अमल करो, दाढ़ी बढ़ाओ और मूंछें मुंढवाओ।
(3) दाढ़ी बढ़ाओ और मूंछें मुंढवाओ, यहूद व नसारा की मुशाबहत (समानता) इख्तियार ना करो और अपने सफ़ैद बालों को ख़िज़ाब करो।
(4) हमारे दीन में हम दाढ़ी बढ़ाते हैं और मूंछ साफ़ करते हैं।
(5) जो शख्‍स जिस किसी की मुशाबहत (समानता) इख्तियार करता है वो इन्हीं में (शुमार) होता है। ये रिवायत हज़रत इब्‍ने उम्र से सुंनन अबू दाऊद में नक़ल है।
इन अहादीस में दाढ़ी रखने की वजह ये नहीं बताई गई कि नसरानियों और यहूदीयों से मुख़्तलिफ़ (अलग) अमल है, अगर ये सबब (कारण) होता तो हमें दाढ़ी मुंढवाने का हुक्म दिया जाता क्योंकि यहूदी और ईसाई जो अपने जूते पहन कर इबादत करते हैं और अपनी दाढ़ी तवील करते हैं।
इन अहादीस में कई उमूर (मामलात) हैं जो एक दूसरे से मुंसलिक (जुडें) भी हैं और मरबूत भी :
(1) दाढ़ी बढ़ाना (2) मूंछें साफ़ करना (3) कुफ़्फ़ार से मुख़्तलिफ़ अमल करना (4) बालों को ख़िज़ाब करना
क़ाज़ी अयाज़ رحمت اللہ علیہकहते हैं कि ख़िज़ाब के मसला पर सहाबा-ए-किराम رضی اللہ عنھم और ताबईन में इख्तिलाफ़ रहा है और इनमें से कुछ ने कहा है कि उसे ना करना ही बेहतर है।
अल्लामा तबरी رحمت اللہ علیہकहते हैं कि ख़िज़ाब का हुक्म और मनाही क़तई नहीं था, यही वजह है कि उस 
वक़्त लोग इस बात एक दूसरे के मौक़िफ़ की तन्क़ीद (आलोचना) नहीं करते थे।

अल्लामा इब्‍ने जोज़ी رحمت اللہ علیہकहते हैं कि सहाबा-ए-किराम رضی اللہ عنھم और ताबईन की एक जमात अपने बालों पर ख़िज़ाब नहीं करते थे।
इमाम नववी رحمت اللہ علیہअपनी तसनीफ़ उल-मजमूअ में लिखते हैं कि हमारी राए में मर्द और औरत के लिए बालों का ख़िज़ाब करना मुस्तहब है।
अल्लामा इब्‍ने क़ुदामह رحمت اللہ علیہअपनी तसनीफ़ अलमुग़नी में कहते हैं कि सफ़ैद बालों को स्याह के अलावा किसी और रंग से ख़िज़ाब करना मुस्तहब है।
इससे ये वाज़ेह (स्‍पष्‍ट) हुआ कि कुछ सहाबा-ए-किराम अपने बालों पर ख़िज़ाब नहीं लगाते थे जबकि ऐसा करना हक़ीक़तन यहूद व नसारा के अमल के ख़िलाफ़ होता जिसका हुक्म दिया गया है। यही वजह है कि कुछ औलमा ने ख़िज़ाब को मंदूब बताया है।
जहां तक ऊपर आई अहादीस में चौथी हदीस का सम्‍बन्‍ध है तो इसमें ना दाढ़ी की फ़र्जियत का हुक्म है और ना ही उसे मंदूब बताया गया है, इसमें महिज़ एक तलब (मांग) है। मुमताज़ औलमा ने तस्लीम किया है कि हर हुक्म फ़र्ज़ीयत का दर्जा नहीं रखता बल्कि तलब का दर्जा रखता है, उसकी फ़र्ज़ीयत होना इस बात पर मुनहसिर (निर्भर) होता है कि इसमें ना करने पर अज़ाब की वईद या करने पर इनाम वारिद हुआ हो। क़ुरआन हकीम की कई आयात और हुज़ूर नबी करीम (صلى الله عليه وسلم) की बेशुमार अहादीस इस अम्र (हुक्‍म) की गवाह हैं। किसी हुक्म के मानी हक़ीक़ी, तमसीली (मिसाली) या महज़ तलब हो सकते हैं, उसकी फ़र्ज़ीयत के लिए नागुज़ीर है कि 
इसके फ़र्ज़ होने की जानिब वाज़ेह (स्‍पष्‍ट) इशारा हो। मिसाल के तौर अल्लाह का फ़रमान :

وَاِذَا حَلَلْتُمْ فَاْصْطَادُوْا

''और जब एहराम की हालत से बाहर हो जाओ तो शिकार करो।'' (अल माईदा: 2)

فَاِذَا قُضِیَتِ الصَّلٰوۃ فَانْتَشِرُوْا فِی الْاَرْضِ
 
''और जब नमाज़ पूरी हो जाये तो ज़मीन में फैल जाओ।'' (अल जुमुआह: 10)
وَکُلُوْا مِمَّا رَزَقَکُمُ اللّٰہُ حَلٰلًا طَیِّبًاص

''जो कुछ हलाल व तुय्यब रिज़्क अल्लाह ने तुम्हें दिया है उसे खाओ।'' (अलमाईदा: 88)

خُذُوْا زِیْنَتَکُمْ عِنْدَ کُلِّ مَسْجِدٍ
 ''इबादत के हर मौक़े पर अपनी ज़ीनत इख्तियार करो।'' (अल अहराफ : 31)
या मिसाल के तौर पर हुज़ूर नबीए अकरम (صلى الله عليه وسلم) की अहादीस को देखें : फ़रमाया : ''हमें हुक्म दिया गया है कि हम नमाज़ के बाद तस्बीह करें।'' या फ़रमाया : ''शादी करो और तुम्हारे बच्चे हो, क़यामत के दिन मुझे दूसरी उम्मतों के सामने तुम पर फ़ख़्र होगा।'' ये तमाम आयात और अहादीस सैग़ाये तलब में हैं लेकिन ज़रूरी नहीं कि इनमें तलब (demand /मांग) फ़र्ज़ीयत का दर्जा रखती हो क्योंकि ऐसा कोई इशारा नहीं मिलता; इनमें सिर्फ तलब आई है। इस तलब की फ़र्ज़ीयत के लिए लाज़िमी है कि इसके साथ अल्लाह سبحانه وتعال की तरफ से सज़ा की वईद (चेतावनी), इनाम या माफ़ी का वाअदा हो। यही सबब है कि ऊपर लिखी आयात व अहादीस में जो शिकार, खाने पीने, लिबास पहनने, तस्बीह पढ़ने, वुज़ू में बहतरी और शादी की तलब को औलमाए किराम ने फ़र्ज़ नहीं बताया है क्योंकि इसके लिए कोई वाज़ेह (स्‍पष्‍ट) इशारा मौजूद नहीं है।
जब हुज़ूर नबीए अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया कि अल्लाह سبحانه وتعال ने मुझे दाढ़ी बढ़ाने का हुक्म दिया है, तो ये फ़र्ज़ नहीं बल्कि एक तलब हुई। मज़ीद ये कि आप (صلى الله عليه وسلم) के अफ़आल (कार्य) कुछ तो ऐसे हैं जो आप (صلى الله عليه وسلم) के ज़ाती अफ़आल हैं, मसलन आप (صلى الله عليه وسلم) किस तरह अपनी पलकें झपकाते थे या लबों को हिलाते थे; या वो खास अफ़आल हैं जो सिर्फ़ आप (صلى الله عليه وسلم) के साथ ख़ास थे और दूसरों के लिए हराम, जैसे आप (صلى الله عليه وسلم) की एक ही वक़्त में चार से ज़्यादा बीवीयां थीं या लगातार रोज़े रखते थे। इसके अलावा कुछ ऐसे आमाल हैं जो अल्लाह سبحانه وتعال ने आप के लिए फ़र्ज़ रखे थे लेकिन पूरी उम्मत के लिए मंदूब, जैसे कि तहज्जुद की नमाज़, वित्र और अलज़ुहा।

दूसरे वो अफ़आल हैं जो फ़र्ज़ या मंदूब हैं और जिन्हें मुसलमानों को करना है; या हराम व मकरूह हैं जिनसे इज्तिनाब (बचना) करना है; या मुबाह आमाल (कार्य) हैं जिन्हें इख्तियार या तर्क किया जा सकता है।
मुंदरजा बाला में चौथी हदीस में आया है : हमारे दीन में हम दाढ़ी बढ़ाते हैं और मूंछ साफ़ करते हैं।  इसमें भी फ़र्ज़ीयत नहीं आई, क्योंकि हमारे दीन में या फ़राइज़ हैं, मंदूबात हैं, मुबाह हैं, और हराम व मकरूह हैं लिहाज़ा ये अमल इनमें से किसी भी ज़ुमरे में हो सकता है।
आख़िरी हदीस में फ़रमाया : ''जो शख्‍स जिस किसी की मुशाबहत (समानता) इख्तियार करता है वो इन्हीं में (शुमार) होता है।'' इससे मुराद उनकी तक़लीद (अनुसरण) करने की नीयत से उनकी नक़ल करना है, अगर एक मुसलमान कुफ़्फ़ार की तक़लीद और इत्तिबा करने की नीयत से दाढ़ी नहीं बढ़ाता और मूंछें साफ़ नहीं करता तो वो गुनहगार होगा, लेकिन अगर इसका ये अमल कुफ़्फ़ार के इत्तिबा में नहीं है बल्कि महज़ (सिर्फ) उसकी आदत या उसकी पसंद है तो फिर वो गुनहगार नहीं होगा। आज के दौर में हम देखते हैं कि काफिरों ने दाढ़ी बढ़ाने का रिवाज इख्तियार कर रखा है तो क्या हम सिर्फ उनसे मुशाबहत ना रखने के बाइस (कारण) दाढ़ी रखना तर्क कर देंगे?
कुछ लोग कहते हैं कि मूंछें साफ़ करना फ़र्ज़ है क्योंकि हुज़ूरे अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया है :
''जो कोई अपनी मूंछें नहीं साफ़ करता वो हममें से नहीं।''
उनका मौक़िफ़ (मत) है कि हममें से नहीं होना उसकी फ़र्ज़ीयत का क़रीना है। इसके जवाब में ये कह सकते हैं कि हर वो हदीस जिसमें आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया कि वो हममें से नहीं, हुक्मे फ़र्ज़ीयत नहीं रखती, इस पर मज़ीद ग़ौर व ख़ौज़ की ज़रूरत है।
ऐसी कई अहादीस हैं जिनमें कहा गया है कि वो हममें से नहीं, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि इनमें तलब (मांग) का दर्जा फ़र्ज़ीयत का हो गया, ये दलील मुस्तहब के लिए है। मिसाल के तौर पर अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया :
''जो कोई अपनी शर्मगाह के बाल साफ़ नहीं करता, अपने नाखून नहीं काटता और अपनी मूंछें साफ़ नहीं करता वो हममें से नहीं।''
क्या इससे मुराद नाखून का काटना फ़र्ज़ हो गया? या आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया :
''जो कोई वित्र की नमाज़ अदा नहीं करता वो हममें से नहीं।''

क्या इससे मुराद ये होगी कि जो कोई वित्र ना पढ़े वो काफ़िर या बाग़ी हो गया?
ये फ़िक़रा (यानि वो हम में से नहीं) लाज़िमी तौर पर किसी अमल की फ़र्ज़ीयत पर दलालत नहीं करता, हुज़ूरे अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया :
''ये आमाल मेरे लिए फ़र्ज़ है और तुम्हारे लिए सुन्‍नत; वित्र, मिस्वाक और रातों का जागना।''

तमाम औलमा का इत्तिफ़ाक़ है कि वित्र सुन्‍नत हैं ना कि फ़र्ज़। एक और हदीस में आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया :  ''निकाह मेरी सुन्‍नत है, जो कोई मेरी सुन्‍नत पर अमल ना करे वो हममें से नहीं।''

ये इस बात का इशारा है कि निकाह सुन्‍नत है और मुसलमानों को उसकी तरग़ीब दिलाई गई है, ये तलब निकाह की फ़र्ज़ीयत पर दलालत नहीं करती।
लिहाज़ा इन अहादीस पर ग़ौर करना होगा जिनमें ये फ़िक़रा (Sentence) वारिद हुआ है कि वो हममें से नहीं। इससे मुराद किसी हराम या मकरूह फे़अल (कार्य) से इज्तिनाब (बचना) हो सकता है या किसी फ़र्ज़, मंदूब और मुस्तहब का किया जाना मुराद हो सकता है; मसलन आँहज़रत ने फ़रमाया : ''जो नस्ल की दावत देता हो वो हममें से नहीं।''

यहां इससे मुराद ये होगा कि नस्ल परस्ती हराम है, इसका सबब (कारण) ये नहीं कि इसके लिए वो हममें से नहीं वारिद हुआ है, बल्कि इसलिए कि नस्ल परस्ती की तहरीम (हुरमत) कई अहादीस और आयात में वारिद हुई है। या मिसाल के तौर पर आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया :
''वो हममें से नहीं जो धोखा करे।''
धोका देना हराम है, लेकिन इसका सबब (कारण) ये नहीं कि इसके लिए “वो हममें नहीं ” वारिद हुआ है, बल्कि इस वजह से कि धोखे की हुर्मत मुतअद्दिद (कई) अहादीस में आई है। अब जहां तक इस हदीस का सवाल है कि जो अपनी मूंछें ना साफ़ करे वो हममें से नहीं। इससे मुराद ये होगा कि मूंछें साफ़ करना पसंदीदा या मुस्तहब है। जब इमाम अहमद बिन हनबल (رحمت اللہ علیہ) से मूंछें साफ़ करने के ताल्लुक़ से पूछा गया तो आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया कि ''ये मंदूब है यानी पसंदीदा है।''

मूंछें साफ़ करने से मुराद अपने होंटों के बालाई हिस्सा के बाल तराशना है क्योंकि उन्हें बिल्‍कुल उतरवा देना ना पसंदीदा अमल बताया गया है।
कुछ लोग कहते हैं कि क्योंकि सहाबा-ए-किराम رضی اللہ عنھم अपनी दाढ़ी नहीं उतरवाते थे, लिहाज़ा दाढ़ी को उतरवा देना (Shaving ) करना हराम हुआ। यहां कहा जाएगा कि इस हुक्म के शवाहिद व दलायल ये नहीं हैं कि सहाबा-ए-किराम ने क्‍या अमल किया या नहीं किया; यहां दलील इस बात से अख़ज़ (प्राप्‍त) की जाएगी कि हुज़ूरे अक़्दस (صلى الله عليه وسلم) की तलब (मांग) से काफिरो की मुशाबहत (समानता) से इज्तिनाब (बचने का) हुक्म मुराद है। यहां ये तलब जाज़िम नहीं है जो उसकी फ़र्ज़ीयत पर महमूल की जाये। जहां तक सहाबा-ए-किराम رضی اللہ عنھم का दाढ़ी साफ़ ना करने की बात है तो वहां इस्लाम से पहले और बाद में दाढ़ी का रिवाज था और ये लोगों की आदत थी और उन्हें उसे साफ़ करने की कोई ज़रूरत नहीं थी। यही बात इमामा बांधने पर सादिक़ आती है, ये कहीं वारिद नहीं हुआ कि किसी ने सहाबा-ए-किराम رضی اللہ عنھم को सड़क पर बगै़र इमामा के देखा हो। सहाबा-ए-किराम رضی اللہ عنھم का इमामा बांधना, इमामा की फ़र्ज़ीयत पर महमूल नहीं किया जाएगा, और कभी औलमा व आइम्माऐ किराम ने सहाबा-ए-किराम رضی اللہ عنھم के इमामा बांधने के बाइस (कारण) उसे फ़र्ज़ क़रार नहीं दिया। लिहाज़ा ऐसे शवाहिद व दलायल मुस्तर्द (अस्‍वीकार) हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि हुज़ूर नबी अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने कभी दाढ़ी साफ़ नहीं की और वो दलील के तौर पर इस आयत को पेश करते हैं :

لَقَدْ کَانَ لَکُمْ فِیْ رَسُوْلِ اللّٰہِ اُسْوَۃٌ حَسَنَۃٌ
 
''बेशक तुम्हारे पास अल्लाह के रसूल में एक बेहतरीन नमूना है।'' (अल अहज़ाब : 21)

وَمَآ اٰتٰکُمُ الرَّسُوْلُ فَخُذُوہُج وَمَا نَھٰکُمْ عَنْہُ فَانْتَھُوْا

''रसूल जो कुछ तुम्हें दे दे उसे ले लो; और जिस चीज़ से वो तुम्हें रोक दे, उससे रुक जाओ।''(हश्र: 7)

इसके जवाब में हमारा मौक़िफ़ (मत) है कि यक़ीनन उन तमाम अफ़आल (कामों) में जो हुज़ूर नबीए अकरम (صلى الله عليه وسلم) के लिए मख़सूस नहीं हैं, आप (صلى الله عليه وسلم) की इत्तिबा करना हर मुसलमान पर लाज़िमी है; अलबत्ता इसका ये मतलब नहीं होता कि वो तमाम अफ़आल (काम) फ़र्ज़ हो गए, इन अफ़आल (कामों) में कुछ फ़र्ज़ हैं जिनकी इत्तिबा की ही जानी है, कुछ मंदूब हैं जिन्हें अन्जाम देना मुस्तहब होगा और उन अफ़आल (कामों) को हम अगर अपने तौर पर फ़र्ज़ के दायरे में शुमार कर लें तो ये सुन्‍नते रसूल (صلى الله عليه وسلم) की ख़िलाफ़वर्ज़ी होगी। इसी तरह अगर हम किसी फे़अल (काम) को जिसे आप (صلى الله عليه وسلم) ने हराम नहीं बताया हो उसे हराम समझ लें तो ये भी सुन्‍नत की और शरीयत की ख़िलाफ़वर्जी़ होगी।
हुज़ूरे अकरम (صلى الله عليه وسلم) को किशमिश और खजूर पसंद थीं इसी तरह आप (صلى الله عليه وسلم) मुश्क इस्तिमाल फ़रमाते थे। आप (صلى الله عليه وسلم) को प्याज़, लहसुन और ख़रगोश नापसंद थे इसके बावजूद आप ने उन अशीया (चीज़ों) को हमारे लिए मुबाह (जायज़) रखा।
अब उन मुआमलात पर जो दूसरी इस्लामी राय गुज़री, यानी कि दाढ़ी का मंदूब होना, तो हम इसी राय को बेहतर मानते हैं। जिन औलमा ने ये राय इख्तियार की है, उनके दलायल निम्‍नलिखित हैं :
मुंदरजा बाला में जो हदीस गुज़री कि ये दस अफ़आल फ़ित्रत के हैं, इस हदीस को सुनन नसाई ने भी रिवायत किया है और उनके अल्फाज़ में आता है कि दस अफ़आल सुन्‍नत के हैं। हज़रत इब्‍ने अब्बास رضي الله عنه से नक़ल है कि दस अफआल फ़ित्रत शरीअते इबराहीम में फ़र्ज़ थे और हमारी शरीयत में सुन्‍नत हैं। इसके बाद वही हदीस आती है जो ऊपर गुज़री।
फ़ित्रत के कई मफ़ाहीम (मतलब) हैं, इनमें एक के माअनी इस्लाम या मिल्लत है। किसी ने कहा कि इससे मुराद जिस्म या शक्ल है जिस पर अल्लाह سبحانه وتعال ने इंसानों की तख़लीक़ (रचना) की। किसी ने कहा कि फ़ित्रा से मुराद इब्तिदा है। इमाम नववी رحمت اللہ علیہ फ़रमाते हैं कि फ़ित्रा से मुराद सुन्‍नत है और यही सही भी है। इमाम खतबी رحمت اللہ علیہ की भी यही राय है। क़ाज़ी अयाज़ رحمت اللہ علیہ कहते हैं कि दाढ़ी का साफ़ करना मकरूह है।
क़ाज़ी इब्‍ने अलअरबी رحمت اللہ علیہ वो आलिम हैं जो तीसरी राय पर गए हैं। उनकी तसनीफ़ अहकाम उल-क़ुरआन में है कि दाढ़ी का रखना मुबाह है और सफ़ाई व नज़ाफ़त की अलामत है नीज़ दाढ़ी रखना वजाहत की निशानी है। इमाम क़ुरतबी رحمت اللہ علیہ कहते हैं कि ग़ैर-मुस्लिम दाढ़ी को साफ़ करते और मूंछों को बढ़ाया करते थे।
हमारा मौक़िफ़ है कि ये मौज़ू इख्तिलाफ़ (मतभेद) और तनाज़ाअ (टकराव) का महवर (केन्द्र) बन गया है। एक मुसलमान को ये इख्तियार है कि वो किसी भी इमाम की राय जिसकी दलील को वो सबसे क़वी तस्लीम (मज़बूत) करता हो, इख्तियार कर सकता है। इन आरा (राय) में हमारे खयाल से सबसे मज़बूत शवाहिद वाली वो राय है जिसकी रू से दाढ़ी मंदूब है। एक मुसलमान को उसे रखने पर अज्र मिलता है लेकिन ना रखने पर बाज़पुर्स या सज़ा नहीं होती।

कुछ लोग ये कहते हैं कि चारों आइमे किराम यानी हज़रत इमाम अबू हनीफ़ा (رحمت اللہ علیہ), हज़रत इमाम मालिक (رحمت اللہ علیہ), हज़रत इमाम अहमद इब्‍ने हम्बल (رحمت اللہ علیہ) और हज़रत इमाम शाफ़ई (رحمت اللہ علیہ) के नज़दीक दाढ़ी रखना फ़र्ज़ है। ये हक़ीक़त नहीं है क्योंकि इन हज़रात ने ये कभी नहीं कहा। जो भी इन हज़रात की असल किताबों का मुताला (अध्‍ययन) करेगा उसे मालूम हो जाएगा कि ये दावा सच्चा नहीं है, इसका बेहतरीन सबूत ख़ुद इन हज़रात के शागिर्द हैं। इमाम नववी(رحمت اللہ علیہ), इब्‍ने क़ुदामा(رحمت اللہ علیہ), इब्‍ने हमाम(رحمت اللہ علیہ), इमाम शोकानी(رحمت اللہ علیہ), क़ाज़ी अयाज़ (رحمت اللہ علیہ)और इमाम ज़रक़ानी (رحمت اللہ علیہ) ने कभी ये नहीं कहा कि दाढ़ी रखना फ़र्ज़ या वाजिब है। जो भी ये दावा करे कि इमाम अबू हनीफा (رحمت اللہ علیہ), इमाम शाफ़ई (رحمت اللہ علیہ), इमाम अहमद (رحمت اللہ علیہ) और इमाम मलिक (رحمت اللہ علیہ) ने इसे फ़र्ज़ या वजिब बताया है तो उसे चाहिए कि इन हज़रात की असल कुतुब का हवाला दे या ऐसे दावों से परहेज़ करे। बिलफ़र्ज़ अगर एक आलिम ये दावा भी करे कि ये फ़र्ज़ है तो भी हर एक मुस्लिम पर इस राय की इत्तिबा लाज़िमी नहीं होती, क्योंकि ऐसे कईं औलमा व फुक़हा हैं जिनकी ये राय नहीं। जैसा कि पहले कहा गया, दीन के फुरूअ (शाख) में इख़तिलाफ़े राय की इजाज़त है। वल्लाहो आलम।


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